जेही बिधि नाथ होए हित मोरा ।
करहु सो बेगि दास मैं तोरा ।।
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भाविन मैसूरिया जी को श्रेय इस सुन्दर चित्र का |
जय श्री राम प्रिय भाइयों और बहनों, ये प्रसंग जिसकी मैं चर्चा करने जा रहा हूँ मेरे ह्रदय को बहुत प्रिय है। मेरे बड़े भ्राता स्वरूप प्रभु हनुमान जी जब जाम्बवन जी, अंगद जी और अन्य वानरों के साथ माता सीता की खोज मे निकले थे व समुद्र के तट पर जा कर निराश हो गये थे कि अब माता को कहा खोजे। चूंकि हनुमान जी को अपनी शक्तियों का विस्मरण हो रखा था उन्हें भी निराशा ने घेर लिया था।
जब जांबवन जी ने ये परिस्थिति देखी तो उन्होंने हनुमान जी को उनकी शक्तियों का स्मरण कराने का प्रयास किया और कुछ इस प्रकार दोनो मे संवाद हुआ।
अंगद जी को स्वयं पर भरोसा था की वो समुद्र को लांघ जायेगे और लंका चले जायेंगे परंतु वापस आने में संसय था क्योंकि रावण का छोटा पुत्र अक्षय कुमार और अंगद जी एक ही गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण किए थे और अंगद के पिता जी बाली ने रावण को छह महीने तक बंदी बना रखा था, उस शत्रुता के कारण अंगद जी को संसय था की अक्षय कुमार उन्हें लंका से जीवित वापस नहीं आने देगा।
चौपाई कुछ इस प्रकार प्रारंभ है -
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक॥
जाम्बवान जी ने कहा- तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
जाम्बवान जी ने कहा - हे हनुमान सुनो, तुम बलवान किस विचार में खोए हुए हो। तुम पवन के पुत्र हो और तुम्हारा बल भी पवन देव के ही समान है, बुद्धि, विवेक और विज्ञान की खान हो तुम। तुम किस विचार में खोए हो बताओ ही बलवान हनुमान।
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
जगत में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री राम जी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान जी ने जय श्री राम नाम का सिंहनाद किया और पर्वत के समान बड़े हो गए उनका विशालकाय रूप देख के अन्य वानर को विश्वास हो गया की अवश्य ही हनुमान हमे इस संकट से बाहर निकल लेंगे।
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥
उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ।
सहित सहाय रावनहि मारी।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही॥
और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना (कि मुझे क्या करना चाहिए)।
एतना करहु तात तुम्ह जाई।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना।
कौतुक लागि संग कपि सेना॥
(जाम्बवान ने कहा-) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीता जी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्री राम जी अपने बाहुबल से (ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएँगे, केवल) खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे।
कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनि हैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानि हैं॥
जो सुनत गावत कहत समुक्षत परमपद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
वानरों की सेना साथ लेकर राक्षसों का संहार करके श्री रामजी सीता जी को ले आएँगे। तब देवता और नारदादि मुनि भगवान के तीनों लोकों को पवित्र करने वाले सुंदर यश का बखान करेंगे, जिसे सुनने, गाने, कहने और समझने से मनुष्य परमपद पाते हैं और जिसे श्री रघुवीर के चरणकमल का मधुकर (भ्रमर) तुलसीदास गाता है।