।। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
राजा मुचकुंद इक्ष्वाकु वंश के राजा थे, इसी वंश में भगवान श्री राम ने जन्म लिया था। सूर्यवंशी कुल के राजा मुचकुंद बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ, साहसी और प्रजापालक थे। उनके राज में न तो किसी प्रकार के रोग थे न ही निर्धनता न अन्य कोई संकट। राजा के प्रत्येक कार्य धर्म के अनुसार होते थे । वीरता ऐसी की देवता और दानव भी राजा मुचकुंद से युद्ध करने में भयभीत रहते थे। दान, पुण्य, कर्म, धर्म सभी का अनुसरण करते हुए राजा अपने राज्य का पालन करते थे ।
एक बार देव और असुर संग्राम में असुर देवताओं पर विजय प्राप्त करने के बहुत निकट थे तब इंद्र ने वायु को आदेश दिया की जाके राजा मुचकुंद से सहायता की प्रार्थना करो। वायु अति वेग से राजा के पास पहुंचे और उनसे सहायता मांगी। राजा ने कभी किसी को सहायता के लिए मना नही किया था तो वो वायु के साथ असुर सेना से युद्ध करने स्वर्ग लोक पहुंच गए । युद्ध कई वर्षों तक चला जब राजा की सहायता से देवताओं ने विजय प्राप्त कर ली तब राजा ने वापस पृथ्वी पर आने की आज्ञा देवराज इंद्र से मांगी तब देवराज ने उन्हें स्वर्ग और भूलोक के समय से अन्तर बताया कि पृथ्वी पर तो कई युग बीत चुके है और उनके परिवार और साम्राज्य का वहा अब कोई नही बचा है। राजा को ये जान कर बहुत दुख हुआ, देवराज ने उन्हें स्वर्ग में स्थान ग्रहण करने को कहा परंतु राजा ने मना कर दिया तो देवराज ने उन्हें वर मांगने को कहा।
राजा युद्ध कर के बहुत थक गए थे क्योंकि बहुत वर्षों उन्होंने निद्रा नही ली थी तो उन्होंने राजा इंद्र से अनंत निद्रा का वर मांगा। देवराज ने उन्हें वर प्रदान किया और कहा की जो कोई भी तुम्हारी निद्रा भंग करेगा,तुरंत ही वो तुम्हारे तप के तेज से भस्म हो जायेगा। राजा मुचकुंद देवताओं को प्रणाम कर पृथ्वी पर एक सुगम और शांत गुफा में आके सो गए।
द्वापर युग मे जब भगवान श्री कृष्ण जब मथुरा वापस गए और कंस का वध किया तो मगध नरेश जरासंध बहुत क्रोधित हुए क्योंकि जरासंध ने अपने दोनो पुत्रियों का विवाह कंस के साथ किया था और अपनी पुत्रियों के विधवा हो जाने पर क्रोध के कारण जरासंध मथुरा को विध्वंस कर देना चाहते थे।
प्रथम बार जब जरासंध ने मथुरा पर हमला किया तब भगवान श्री कृष्ण और बलराम जी ने युद्ध में अहम भूमिका निभाई और जरासंध की सेना को परास्त कर वापस खदेड़ दिया। जरासंध ने पराजय स्वीकार नहीं की और बार बार सत्रह बार मथुरा पर हमला किया और हर बार पराजय का सामना किया।
जरासंध अपने राज्य में सभी मंत्रियों को बुला सलाह ले रहा था की कैसे कृष्ण और बलराम को हराया जाए और मथुरा को अपने शासन में ले। जरासंध के मुख्य मंत्री शल्य ने उन्हें बताया की दक्षिण में काल्यवन नामक एक राजा है जो बहुत वीर और प्रतिभाशाली है और उसे आशीर्वाद प्राप्त है की युद्ध में उसे इस समस्त संसार में कोई भी परास्त नहीं कर सकता ।
काल्यवान भी ऐसे विरोधी की खोज कर रहा था जिसे हराकर समस्त विश्व में वो राज कर पाए। जब जरासंध ने काल्यवन को मथुरा के बारे में बताया तो काल्यवन अपनी सेना के साथ मथुरा पे आक्रमण करने चल पड़ा ।
श्री कृष्ण को ये पूर्व ही ज्ञात था तो उन्होंने पहले ही पूरी मथुरा पुरी को अपने साथ पश्चिम को ले गए, समुद्र तट पर पहुंच के उन्होंने समुद्र देव से जल के मध्य में कुछ भूमि मांगी जिसमे द्वारका नगरी बसाई और सारे मथुरा वासियों को वही वास कराया और स्वयं मथुरा वापस आ गए।
एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से काल्यवन मथुरा पे आक्रमण करने आ रहे थे कृष्ण जी को ज्ञात था की काल्यवन को युद्ध में परास्त करना असंभव है तो उन्होंने उसके अंत के लिए दूसरी विधि निकाली।
उन्होंने रण छोड़ दिया और भागने लगे काल्यवन भी उनके पीछे पीछे भागने लगा उन्हें पकड़ने के लिए। रण छोड़ कर भागने के कारण ही श्री कृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ा। वनों के बीच से होते हुए वे उस गुफा में प्रवेश कर गए जहा राजा मुचकुंद सतयुग से निद्रा में थे। और अपनी पीतांबर चुनरी राजा मुचकुंद के ऊपर उढ़ा दी और स्वयं छिप गए। जब काल्यवान गुफा में प्रवेश किया तो उसको लगा की कृष्ण मुझसे भागते भागते यहां आके सो गया है उसने जगाने के लिए पैरो से प्रहार करना आरंभ किया जैसे ही राजा मुचकुंद की निद्रा टूटी और वो उठे उनके शरीर के तेज से काल्यवन जल कर भस्म हो गया। और इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण की एक लीला ने काल्यवन जैसे भयानक दैत्य का अंत किया ।
जब राजा मुचकुंद ने श्री कृष्ण को देखा तो वो एक ही क्षण में जान गए की ये तो स्वयं श्री हरि है उन्होंने श्री कृष्ण को प्रणाम किया और श्री कृष्ण ने उन्हें जीवन और मृत्यु के इस संगम से मुक्त होने का वर प्रदान किया ।